पुरुषों
काश ! तुम जन्म ही न ले सको
और “स्त्री” तुम्हें जन्म देना ही बंद कर दे
सोचो
अजन्मे रह कर
कहां भोगेगे विलास
कैसे बुझा सकोगे शैतानी प्यास
क्यों न कोख में ही तुम्हें
नष्ट कर दिया जाए
या फिर जन्म लेते ही तुम्हें
उस सुख से वंचित कर दिया जाए
जिस सुख से तुम समाधि तक
पहुंचना चाहते हो
घिनौना पाश्विक कृत्य करते हो
या फिर तुम
अमानवीय कृत्य की इच्छा रखते हो
तुम्हें तो पशु की संज्ञा देना भी
पशुओं का अपमान है
स्त्री की कोख से जन्म लेकर
स्त्री की अस्मिता को तार तार करते
तुम्हारे हाथ नही कांपते
घिन आती है तुम्हारी बीमार सोच पर
खून खौलता है मुठ्ठियां भिंचती हैं
कई-बार, बार-बार
समाज की उस सोच पर कि
बेटों से वंश चलता है…..